Wednesday, 17 December 2014


Today in Indian History
Events for December 17
17-December-1645Noorjahan Begum passed away.
17-December-1715Banda Bahadur Bairagi surrendered at Gurdaspur of Farrukhsiyar to the Mughal army.
17-December-1740Chimaji Appa, Peshwa warrior, died.
17-December-1830Simon Bolivar, great dynamic leader and social reformer, died.
17-December-1877Feroz Shah died at Makka, Saudi.
17-December-1905Judge Mohammad Hidayatullah, Chief Justice and Supreme Court of India, was born.
17-December-1910Keki Khursedji Tarapore, cricketer (0-72 in his only Test for India), was born in Bombay.
17-December-1914Syed Mushtaq Ali Takub Khan, cricketer, prolific Indian batsman of 30's & 40's, was born in Indore.
17-December-1929Bhagat Singh and Rajguru killed Sanders, Asst. Suprintendent of Police.
17-December-1933Lala Amarnath scores a century (118) in his Test Cricket debut.
17-December-1934Khandesh Gandhi Mir Sukrulla, great patriot and freedom fighter, died.
17-December-1938Charuchandra Bandopadhyay, famous Bengali story writer and novelist, died.
17-December-1959Pattabhi Sitaramayya, president of Indian National Congress and politician, died at the age of 78.
17-December-1961Provocative action against our nationals in the vicinity of Anjadip Island and Portugal's belligerent attitude to the problems of its colonial possessions in this country, resulted in the Government of India's decision to liberate Goa, Daman and Diu. Operations were launched at night.
17-December-1970Judge Jayantilal Chhotalal Shah became the Chief Justice of India. He helded this office till 21/01/1971.
17-December-1971Ceasefire between India & Pakistan in Kashmir and end of Indo-Pak war.
17-December-1972New line of control agreed to in Kashmir between India & Pakistan.
17-December-1974Ustad Gulam Sabir, famous Sarangi player, died at Kanpur.
17-December-1978Dhirendranath Ganguly, father of Bengali film industry, died.
17-December-1987Bhopal court orders the Union Carbide to pay Rs. 350 crore as interim relief to 1984 gas victims.
17-December-1990N. Janardhan Reddy sworn in as CM of Andhra Pradesh.
17-December-1991Narasimhan committee on Monetary Reforms recommends that there should not be any further nationalisation of banks. Loan-melas assailed.
17-December-1996Virendrakumar Jain, famous writer, died in Mumbai.
17-December-1998Jyotirmoyee bags her second gold at the Asian Games, winning the women's 800m. Rosakutty finishes second. Bantamweight pugilist Dingko Singh clinches a gold while Indian pair of Sethi-Shandilya strikes top prize in billiards doubles category.
17-December-1998P. M. Sayeed of the Congress(I) was unanimously elected Deputy Speaker of the Lok Sabha.
17-December-1999Pramod Mahajan, Parliamentary Affairs Minister, announces that Women's Bill will be introduced in the Lok Sabha.
17-December-2000The 13-day nationwide postal strike called off.

Wednesday, 3 December 2014

  1. राजेन्द्र प्रसाद
  2. डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। विकिपीडिया
  3. जन्म3 दिसंबर 1884, जीरादेई
  4. मृत्यु28 फ़रवरी 1963, पटना
  5. पिछला कार्य कालभारत के राष्ट्रपति (1950–1962)


  6. राजेन्द्र प्रसाद के बारे में अपडेट प्राप्त करें


    राजेन्द्र प्रसाद

    मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
    डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद (3 दिसम्बर1884 - 28 फरवरी1963भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे
     जिन्होंने  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी अपना योगदान दिया था जिसकी
     परिणति २६ जनवरी १९५० को भारत के एक गणतंत्र के रूप में हुई थी। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने स्वाधीन भारत में केन्द्रीय मन्त्री के रूप में 
    भी कुछ समय के लिए काम किया था। पूरे देश में अत्यन्त लोकप्रिय होने के कारण उन्हें राजेन्द्र बाबू या देशरत्न कहकर पुकारा जाता था।

    पूर्वज[संपादित करें]

    बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान
     को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारन के एक गाँव जीरादेई में जा बसे।
     इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी -
    हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे।
     उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय
     भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
    उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही
     राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
    बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही माँ को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव
     माँ भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।

    प्रारंभिक जीवन[संपादित करें]

    राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं।[1] पाँच वर्ष की उम्र
     में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू
    का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना
    की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई
    रुकावट नहीं पड़ी।
    लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा 
    में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था।.[2] सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण
     गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि
     परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई
     का अभ्यास भागलपुरबिहार में किया करते थे।]].[3]

    हिन्दी एवं भारतीय भाषा-प्रेम[संपादित करें]

    यद्यपि राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई थी तथापि बी० ए० में उन्होंने हिंदी ही ली। वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और 
    साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था।
     एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं
    जैसे भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबन्ध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय
     साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्तेमें हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मन्त्री थे। 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य
     सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटने में हुआ तब भी वे प्रधान मन्त्री थे। 1923 ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन कोकीनाडा में होने वाला था तब वे
    उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित न हो सके अत: उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई० में
     वे बिहार प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथा
     बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के देश और अंग्रेजी के पटना लॉ वीकली समाचार पत्र का सम्पादन भी
    किया था।

    स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान[संपादित करें]

    भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गान्धीजी ने एक तथ्य 
    अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयंसेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस
     से बहुत प्रभावित हुए और 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार
     की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ
    में दाखिल करवाया था। उन्होंने सर्चलाईटऔर देश जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन
    जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ में उन्होंने काफी बढचढ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के
     समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने
     वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों
    का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
    1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष
     का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था।
    भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने 
    संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम
    पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए
    मिसाल के तौर पर काम करते रहे।
    भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य 
    के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश
     की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।

    सरलता[संपादित करें]

    राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले
     सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।
    इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था - "बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन 
    में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय
     कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम
     करना स्वीकार किया।"
    सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था - "उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग
     के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गान्धी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही
     स्थान है जो ईसा मसीहके निकट सेंट जॉन का था।"

    विरासत[संपादित करें]

    सितम्बर 1962 में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को सम्बोधित पत्र में
     राजवंशी देवी ने लिखा था - "मुझे लगता है मेरा अन्त निकट है, कुछ करने की शक्ति का अन्त, सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्त।" राम! राम!! शब्दों के
    उच्चारण के साथ उनका अन्त 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम में हुआ।
    उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके प्रपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं
     मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने बाई-पोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी।
     अशोक जी प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट ऐण्ड साइंस के सदस्य भी हैं।

    कृतियाँ[संपादित करें]

    राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (१९४६) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में (१९५४), इण्डिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह 
    ऐट चम्पारण (१९२२), गान्धीजी की देनभारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

    भारत रत्न[संपादित करें]

    सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्‍न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था
     जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।

    निधन[संपादित करें]

    अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी
     समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते
     रहेंगे।

    सन्दर्भ[संपादित करें]

    बाह्य सूत्र[संपादित करें]

    मुझे अद्यतित रखें
  7. Rajendra Prasad

    From Wikipedia, the free encyclopedia
    Dr.Rajendra Prasad
    Food Minister Rajendra Prasad during a radio broadcast in Dec 1947 cropped.jpg
    1st President of India
    Prime MinisterJawaharlal Nehru
    Vice PresidentSarvepalli Radhakrishnan
    Preceded byPosition Established
    Succeeded bySarvepalli Radhakrishnan
    Personal details
    Born3 December 1884
    ZiradeiSiwan, Bihar, Bengal PresidencyBritish India
    (now in Bihar, India)
    Died28 February 1963 (aged 78)
    Patna, Bihar, India
    NationalityIndian
    Political partyIndian National Congress
    Spouse(s)Rajvanshi Devi (d.1962)
    Alma materUniversity of Calcutta
    ReligionHinduism
    Dr. Rajendra Prasad (About this sound listen ; 3 December 1884 – 28 February 1963) was the first President of the Republic of India.[1] An Indian political leader, lawyer by training, Prasad joined the Indian National Congressduring the Indian independence movement and became a major leader from the region of Bihar. A supporter of Mahatma Gandhi, Prasad was imprisoned by British authorities during the Salt Satyagraha of 1931 and theQuit India movement of 1942. Prasad served one term as President of the Indian National Congress from 1934 to 1935. After the 1946 elections, Prasad served as minister of food and agriculture in the central government. Upon independence in 1947, Prasad was elected president of theConstituent Assembly of India, which prepared the Constitution of India and served as its provisional parliament.
    When India became a Republic in 1950, Prasad was elected its first President by the Constituent Assembly. Following the general election of 1951, he was elected President by the electoral college of the firstParliament of India and its state legislatures. As President, Prasad established a tradition of non-partisanship and independence for the office-bearer, and retired from Congress party politics. Although a ceremonial head of state, Prasad encouraged the development of education in India and advised the Nehru government on several occasions. In 1957, Prasad was re-elected to the presidency, becoming the only president to have been in the office twice.[2]

    Parentage[edit]

    Rajendra Prasad[3] was a Kayastha Hindu and born in Zeradai, in the Siwan district of Bihar . His father Mahadev Sahai, was a scholar of both the Persian and Sanskrit languages, while his mother, Kamleshwari Devi, was a religious woman who would tell stories from the Ramayana to her son.

    Student life[edit]

    When Prasad was 5 years old, his parents placed him under the tutelage of a Moulavi, an accomplished Muslim scholar, to learn the Persian languageHindi and arithmetic. After the completion of traditional elementary education, he was sent to the Chapra District School Meanwhile, in June 1896, at an early age of 12, he was married to Rajavanshi Devi. He, along with his elder brother Mahendra Prasad, then went to study at T.K. Ghosh's Academy in Patna for a period of two years.He secured first in the entrance examination to the University of Calcutta and was awarded Rs. 30 per month as a scholarship. He joined the Presidency College, Calcutta in 1902, initially as a science student. He passed Intermediate level classes then called as F. A. under the University of Calcutta in March 1904 and further graduated with First Division from there itself in March 1905.[4] Impressed by his intellect, an examiner once had commented on his answer sheet "examinee is better than examiner". Later he decided to focus on the study of arts and did his M.A. in Economics with first division from the University of Calcutta in December 1907. There he lived with his brother in the Eden Hindu Hostel. A devoted student as well as a public activist, he was an active member of The Dawn Society.[5] It was due to his sense of duty towards his family and education that he refused to join Servants of India Society. Rajendra Prasad was instrumental[6] in the formation of the Bihari Students Conference in 1906 in the hall of the Patna College.It was the first organization of its kind in India and produced some of the eminent leader of Bihar like Dr. Anugrah Narayan Sinha Shri Krishna Singh and Shri deep naryan Singh. .

    Career[edit]

    As a teacher[edit]


    (Sitting L to R)Rajendra Prasad and Anugrah Narayan Sinha during Mahatma Gandhi's 1917 Champaran Satyagraha
    Rajendra Prasad served in various educational institutions as a teacher. After completing his M.A in economics, he became a professor of English at the Langat Singh College of Muzaffarpur in (Bihar) and went on to become the principal. However later on he left the college for his legal studies. In 1909, while pursuing his law studies in Kolkata he also worked as Professor of Economics at Calcutta City College. In 1915, Prasad appeared in the examination of Masters in Law, passed the examination and won a gold medal. He completed his Doctorate in Law from Allahabad University in 1937.[7]

    As a lawyer[edit]

    In the year 1916, he joined the High Court of Bihar and Odisha. Later in the year 1917, he was appointed as one of the first members of the Senate and Syndicate of the Patna University. He also used to practice law at Bhagalpur, the famous silk-town of Bihar.[citation needed]

    Role in the Independence Movement[edit]


    Jawaharlal Nehru, Bhulabhai Desai, and Rajendra Prasad (Center) at the AICC Session, April 1939
    Dr. Prasad's most initial association with Indian National Congress was during 1906 annual session organised in Calcutta, where he participated in as a volunteer, while studying in Calcutta. Formally, he joined the Indian National Congress in the year 1911, when the annual session was again held in Calcutta. During the Lucknow Session of Indian National Congress held in 1916, he metMahatma Gandhi. During one of the fact-finding missions at Champaran,Mahatma Gandhi asked him to come with his volunteers. He was so greatly moved by the dedication, courage, and conviction of Mahatma Gandhi that as soon as the motion of Non-Cooperation was passed by Indian National Congressin 1920, he retired his lucrative career of lawyer as well as his duties in the university to aid the movement.
    He also responded to the call by Gandhi to boycott Western educational establishments by asking his son, Mrityunjaya Prasad, to drop out of his studies and enroll himself in Bihar Vidyapeeth, an institution he along with his colleagues founded on the traditional Indian model.[8]
    During the course of the independent movement, he interacted with Dr Rahul Sankrityayan, a writer, and polymath. Rahul Sankrityayan was greatly influenced by Prasad's intellectual prowess, finding him to be a guide and guru. In many of his articles he mentioned about his meeting with Sankrityayan and narrated about their meetings. He wrote articles for the revolutionary publications Searchlight and the Desh and collected funds for these papers. He toured widely, explaining, lecturing, and exhorting the principles of the independence movement.[citation needed]
    He took an active role in helping the affected people during the 1914 floods that struck Bihar and Bengal. When an earthquake affected Bihar on 15 January 1934, Prasad was in jail. During that period, he passed on the relief work to his close colleague Anugrah Narayan Sinha.[9] He was released two days later and set up Bihar Central Relief Committee on 17 January 1934, and took the task of raising funds to help the people himself. During 31 May 1935 Quetta earthquake, when he was forbidden to leave the country due to government's order he set up Quetta Central Relief Committee inSindh and Punjab under his own presidency.
    He was elected as the President of the Indian National Congress during the Bombay session in October 1934. He again became the president when Netaji Subhash Chandra Bose resigned in 1939. On 8 August 1942, Congress passed the Quit India Resolution in Bombay which led to the arrest of many Indian leaders. He was arrested from Sadaqat Ashram, Patna and sent to Bankipur Central Jail. After remaining incarcerated for nearly three years, he was released on 15 June 1945.[citation needed]
    After the formation of Interim Government of 12 nominated ministers under the leadership of Jawaharlal Nehru on 2 September 1946, he got the Food and Agriculture department. Later, he was elected the President of Constituent Assembly on 11 December 1946.[10] Again on 17 November 1947 he became Congress President for a third time afterJivatram Kripalani submitted resignation. Two and a half years after independence, on 26 January 1950, the Constitution of independent India was ratified and Dr. Rajendra Prasad was elected the nation's first President.

    Between 1958 and 1960, President Prasad led 5 state visits to Japan,CeylonUSSRIndo-ChinaMalayaand Indonesia.[11]
    Prasad acted independently of politics, following the expected role of the president as per the constitution. Following the tussle over the enactment of theHindu Code Bill, he took a more active role in state affairs. In 1962, after serving twelve years as the president, he announced his decision to retire. After relinquishing the office of the President of India on May 1962, he returned toPatna on 14 May 1962 and preferred to stay in the campus of Bihar Vidyapeeth.[12] He was subsequently awarded the Bharat Ratna, the nation's highest civilian award.
    He died on 28 February 1963. Rajendra Smriti Sangrahalaya in Patna is dedicated to him.[13]

    Literary contributions[edit]

    • Satyagraha at Champaran (1922)
    • India Divided (1946, online)
    • Atmakatha (1946), his autobiography written during his 3-year prison term in Bankipur Jail
    • Mahatma Gandhi and Bihar, Some Reminisences" (1949)
    • Bapu ke Kadmon Mein (1954)
    • Since Independence (published in 1960)
    • bharitya shiksha